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रविवार, जनवरी 12, 2025

एनी बेसेंट: भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की अप्रतिम योद्धा और समाज सुधारिका

“एक पैगम्बर अपने अनुयायियों से ज्यादा व्यापक, अधिक उदार होता है जो उसके नाम का लेबल लगाकर घूमते हैं।”
“भारत वह देश है जहाँ सभी महान धर्मों ने अपना घर ढूँढ लिया है।”
“बुराई केवल अपूर्णता है, जोकि पूर्ण नहीं है, जो हो रहा है किन्तु अपना अन्त नहीं खोज पाया है।”

इन गहन विचारों की धनी एनी बेसेंट एक महान समाज सुधारिका, महिला अधिकारों की पुरजोर समर्थक, सुप्रसिद्ध लेखिका, थियोसोफिस्ट, भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की पहली महिला अध्यक्ष और एक प्रभावशाली वक्ता थीं। भले ही उनका जन्म भारतीय धरती पर नहीं हुआ था, लेकिन उन्होंने भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। आयरिश मूल की डॉ. एनी बेसेंट ने भारत को अंग्रेज़ी शासन से मुक्त कराने के लिए अपना जीवन समर्पित कर दिया। उनकी लेखनी और विचारों ने भारतीयों के अंदर स्वतंत्रता की ज्वाला भड़काई और समाज सुधारकों को भी प्रेरित किया।

प्रारंभिक जीवन और जीवन परिचय

एनी बेसेंट का जन्म 1 अक्टूबर 1847 को लंदन में हुआ था। विवाह से पूर्व उनका नाम एनी वुड था। उनके पिता, विलियम बर्टन पर्स वुड, एक अंग्रेज़ चिकित्सक थे जिन्होंने ट्रिनिटी कॉलेज, डबलिन से शिक्षा प्राप्त की थी। उनकी माता, एमिली रोश मॉरिस, एक आयरिश कैथोलिक थीं। जब एनी मात्र पाँच वर्ष की थीं, तब उनके पिता का निधन हो गया। आर्थिक तंगी के कारण उनकी माता ने उन्हें हेरो ले जाकर अपनी मित्र मिस मेरियट के संरक्षण में रखा, जहाँ एनी ने शिक्षा प्राप्त की। मिस मेरियट ने उन्हें फ्रांस और जर्मनी की यात्रा कराई और वहां की भाषाएं भी सिखाईं। 17 वर्ष की आयु में एनी अपनी माँ के पास वापस लौट आईं।

विवाह और तलाक

एनी को धार्मिक, आध्यात्मिक और रहस्यवाद की पुस्तकें पढ़ने का शौक था, जिससे उनके मन में ईसा मसीह के प्रति गहरा लगाव हुआ। इसी दौरान उनका परिचय रेवरेण्ड फ्रैंक बेसेंट नामक एक युवा पादरी से हुआ, और 1867 में 22 वर्ष की उम्र में उन्होंने उनसे विवाह किया। इस विवाह से उन्हें एक पुत्र, अर्थर, और एक पुत्री, माबेल की प्राप्ति हुई। लेकिन स्वतंत्र विचारों और धार्मिक प्रवृत्ति के कारण उनका अपने पति से मतभेद बढ़ता गया। एनी द्वारा लिखित एक लेख “फ्रूट्स ऑफ फिलॉसफी” में बर्थ-कंट्रोल के पक्ष में तर्क दिए गए थे, जिससे उनका धर्म और समाज के प्रति विद्रोही रुख सामने आया। इस विद्रोह के चलते 1873 में उनके पति से तलाक हो गया। इसके बाद उन्होंने मानवता की सेवा का संकल्प लिया और धर्म के प्रति अपने पुराने विश्वासों से दूरी बना ली।

राजनीतिक सक्रियता

तलाक के बाद, एनी बेसेंट राष्ट्रीय सेक्युलर सोसायटी, जो धर्मनिरपेक्षता को बढ़ावा देने वाली संस्था थी, की प्रसिद्ध लेखिका और वक्ता बन गईं। वह 1877 में प्रसिद्ध जन्म नियंत्रक प्रचारक चार्ल्स नोल्टन की एक प्रसिद्ध किताब प्रकाशित करने के लिए चर्चा में आईं। 1878 में उन्होंने पहली बार भारत के बारे में अपने विचार प्रकट किए, और उनके लेखों ने भारतीयों के दिलों में उनके प्रति स्नेह उत्पन्न किया। 1880 में उनके मित्र चार्ल्स ब्रेडलॉफ नॉर्थ हैम्पटन के संसद सदस्य चुने गए, और एनी को मार्क्सवादी सोशल डेमोक्रेटिक फेडरेशन (एसडीएफ) की प्रमुख प्रवक्ता बनाया गया। 1884 में उनका परिचय युवा समाजवादी शिक्षक एडवर्ड से हुआ, जिसके साथ उनका करीबी रिश्ता बना और जल्द ही उन्होंने मार्क्सवाद अपना लिया। एनी लंदन स्कूल बोर्ड के चुनाव के लिए खड़ी हुईं और लंदन मैचगर्ल्स हड़ताल में सक्रिय रूप से भाग लिया। उन्होंने हड़ताल के उद्देश्य से महिलाओं की एक कमेटी बनाई, जिसका लक्ष्य बेहतर भुगतान और सुविधाओं की मांग करना था। इसके अलावा, वे 1889 की लंदन डॉक हड़ताल से भी जुड़ी रहीं और संगठन द्वारा आयोजित महत्वपूर्ण बैठकों और जुलूसों में भी भाग लिया। एनी बेसेंट इंग्लैंड की सबसे शक्तिशाली महिला ट्रेड यूनियन की सचिव भी रहीं।

थियोसोफी विचारधारा

एनी बेसेंट एक रचनात्मक लेखक और प्रभावशाली वक्ता थीं। 1889 में उन्हें एच.पी. ब्लाव्टस्की की किताब “गुप्त सिद्धान्त” पर समीक्षा लिखने के लिए आमंत्रित किया गया था। पेरिस में पुस्तक के लेखक से साक्षात्कार के तुरंत बाद उन्होंने मार्क्सवाद से नाता तोड़ लिया और थियोसोफिस्ट बन गईं। थियोसोफी, जिसे हेलेना ब्लावट्स्की ने स्थापित किया था, एक धर्म है जो निओप्लेटोनिज्म और हिंदू-बौद्ध धर्म के मूल सिद्धांतों से प्रभावित है। थियोसॉफिकल सोसाइटी का उद्देश्य सत्यान्वेषण करना था और वह किसी भी प्रकार के भेदभाव से रहित समाज की स्थापना करना चाहती थी। एनी बेसेंट ने थियोसोफिकल सोसाइटी के प्रमुख वक्ता के रूप में अपने लिए एक महत्वपूर्ण स्थान बना लिया।

एनी बेसेंट का भारत आगमन

एनी बेसेंट के पास एक शक्तिशाली और अद्वितीय भाषण देने की कला थी। इसलिए, थियोसोफिकल सोसाइटी के प्रमुख वक्ता के रूप में उन्होंने महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त किया। उन्होंने पूरे विश्व में थियोसोफी की शाखाओं के माध्यम से एकता के सूत्र में बाँधने का प्रयास किया। इसी कड़ी में 16 नवंबर 1893 को वे भारत आईं और काशी (वाराणसी) को अपना केंद्र बनाया। 1906 तक उन्होंने अधिकांश समय वाराणसी में बिताया। 1907 में उन्हें थियोसोफिकल सोसाइटी की अध्यक्ष चुना गया। उन्होंने पाश्चात्य भौतिकवादी सभ्यता की कड़ी आलोचना करते हुए प्राचीन हिन्दू सभ्यता को श्रेष्ठ सिद्ध किया। धार्मिक, शैक्षणिक, सामाजिक और राजनीतिक क्षेत्रों में उन्होंने राष्ट्रीय पुनर्जागरण का कार्य प्रारंभ किया।

शिक्षा में योगदान

एनी बेसेंट का शिक्षा के क्षेत्र में योगदान अविस्मरणीय है। उन्होंने 1889 में काशी के तत्कालीन नरेश महाराजा प्रभु नारायण सिंह से भूमि प्राप्त कर सेंट्रल हिन्दू कॉलेज की स्थापना की। इस कॉलेज का उद्देश्य धर्मनिरपेक्षता का प्रसार करना और भटके हुए हिन्दुत्व को सही राह दिखाना था।

1916 में उन्होंने महामना मदन मोहन मालवीय के साथ मिलकर बनारस हिंदू विश्वविद्यालय की सह-स्थापना की। मालवीय जी ने एनी बेसेंट के साथ ‘सेन्ट्रल हिन्दू कॉलेज’ का प्रस्ताव रखा, जिसे उन्होंने सहर्ष स्वीकार कर लिया। इस प्रकार वह बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय की सह संस्थापिका के रूप में जानी जाती हैं।

महिलाओं के लिए वसन्ता कॉलेज की स्थापना भी एनी बेसेंट की महत्वपूर्ण उपलब्धि है। उन्होंने 1913 में वाराणसी में वसंत कॉलेज की स्थापना की, जो आज भी महिला शिक्षा के क्षेत्र में अग्रणी है। 1918 तक, जब वह अपने करियर के चरम पर थीं, उन्होंने कई संगठनों की स्थापना की, जिनमें आंध्र प्रदेश में मदनपल्ले कॉलेज और वाराणसी में गर्ल्स कॉलेज शामिल हैं।

भारतीय राजनीति में प्रवेश और होमरूल लीग आंदोलन

1914 में, 68 वर्ष की आयु में, एनी बेसेंट ने भारतीय राजनीति में प्रवेश किया और होमरूल लीग आंदोलन की शुरुआत की। भारत में होम रूल आंदोलन का मुख्य उद्देश्य भारत में स्वशासन प्राप्त करना था। यह आंदोलन 1916 से 1918 के बीच पूरे देश में फैला। 1920 में अखिल भारतीय होमरूल लीग का नाम बदलकर स्वराज्य सभा कर दिया गया। यह आंदोलन भारतीय राजनीति का नया जन्म माना जाता है, जिसने ब्रिटिश सरकार की नीति में परिवर्तन ला दिया।

भारत भ्रमण और प्रचार

एनी बेसेंट ने पूरे देश का भ्रमण किया और जगह-जगह होम रूल की शाखाएँ स्थापित कीं। उन्होंने लोगों को स्वराज्य का महत्व और उसकी उपयोगिता समझाई। उन्होंने विशाल प्रचार सामग्री तैयार की और भारतीय राजनीति में एक नया क़दम रखा। 1914 में ही उन्होंने ‘न्यू इंडिया दैनिक’ और ‘द कॉमन व्हील साप्ताहिक’ नामक पत्रिकाएँ प्रकाशित कीं, जिनमें ब्रिटिश शासन के विरोध में लेख लिखने के कारण उन्हें 20 हज़ार रुपये का दंड भी देना पड़ा। उन्होंने अमेरिका और इंग्लैंड में भी होमरूल की शाखाएँ खोलीं, जो भारत की स्वतंत्रता के लिए कार्य करती थीं। इंग्लैंड की होम रूल शाखा के प्रमुख कार्यकर्ता ‘लॉर्ड लेंसबरी’ और ‘जॉर्ज बर्नाड शॉ’ जैसे महान व्यक्ति थे।

एनी बेसेंट ने एक और महत्वपूर्ण कार्य किया, जिससे लोकमान्य तिलक और गोपाल कृष्ण गोखले के बीच वैचारिक विभाजन को दूर कर दोनों को एकजुट किया। 1917 में, ब्रिटिश सरकार

ने एनी बेसेंट को उनके दो सहयोगियों के साथ नज़रबंद कर दिया, जिससे पूरे देश में विरोध प्रदर्शन हुए और अंततः उन्हें आज़ाद किया गया। इस घटना ने ब्रिटिश शासन में कई सुधारों की नींव रखी।

कांग्रेस की पहली महिला अध्यक्ष

1917 में, एनी बेसेंट भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की पहली महिला अध्यक्ष बनीं। उन्होंने पूरे वर्ष देश के विभिन्न हिस्सों में घूमकर कांग्रेस पार्टी को संगठित किया। हालांकि, स्वतंत्रता के मुद्दे पर गांधी जी के विचारों से असहमति के कारण उन्होंने कांग्रेस में अपनी सक्रियता धीरे-धीरे कम कर दी। 1924 में, गांधी जी के नेतृत्व में बेलगांव (कर्नाटक) में कांग्रेस का अधिवेशन हुआ। इस अधिवेशन में एनी बेसेंट भी उपस्थित थीं, लेकिन वह अध्यक्ष के स्थान पर न बैठकर पार्टी के अन्य सदस्यों के साथ बैठीं। गांधी जी ने अधिवेशन की कार्रवाई रोककर उन्हें अपने विचार व्यक्त करने के लिए आमंत्रित किया। अपने भाषण में एनी बेसेंट ने कहा कि अब उनकी उम्र ज़्यादा हो गई है और वह सक्रिय राजनीति से संन्यास ले रही हैं। हालांकि, उन्होंने संन्यास के बाद भी शिक्षा और समाज सुधार के कार्यों में अपना योगदान जारी रखा।

एनी बेसेंट के विचार

एनी बेसेंट का जीवन और कार्य ‘कर्म’ के सिद्धांत पर आधारित था। वह जिस सिद्धांत में विश्वास करतीं, उसे अपने जीवन में उतारकर लोगों को उपदेश देती थीं। एनी बेसेंट भारत को अपनी मातृभूमि मानती थीं। वे जन्म से आयरिश, विवाह से अंग्रेज़ और भारत को अपनाने के कारण भारतीय थीं। तिलक, जिन्ना और महात्मा गाँधी जैसे नेताओं ने उनके व्यक्तित्व की प्रशंसा की। एनी बेसेंट भारतीय वर्ण व्यवस्था की प्रशंसक थीं और समाज में शिक्षा और धर्म के समन्वय को महत्वपूर्ण मानती थीं।

एनी बेसेंट का उद्देश्य हिंदू समाज और उसकी आध्यात्मिकता में आई विकृतियों को दूर करना था। उन्होंने भारतीय पुनर्जन्म में विश्वास करना शुरू किया और उनका निश्चित मत था कि वह पिछले जन्म में हिंदू थीं। वह धर्म और विज्ञान के बीच कोई भेद नहीं मानती थीं और धार्मिक सहिष्णुता में उनका पूर्ण विश्वास था। उन्होंने भारतीय धर्म का गहन अध्ययन किया और भगवद्गीता का अनुवाद भी किया।

ईसाई धर्म की आलोचना

एनी बेसेंट का विचार था कि ईसाई धर्म की रूढ़िवादी सोच स्त्रियों को ‘आवश्यक बुराई’ मानती है और चर्च के कई महान संत स्त्रियों से घृणा करते थे। एनी बेसेंट की राय अत्यधिक ईसाई विरोधी थी, क्योंकि वह नास्तिकता में विश्वास करती थीं। उन्होंने नास्तिकता और स्वतंत्र विचार के पक्ष में कई लेख लिखे और बोला। 1887 में, उन्होंने चार्ल्स ब्रैडलॉ के साथ “व्हाई आई डोंट बिलीव इन गॉड” नामक पुस्तिका का सह-लेखन किया। उन्होंने महिलाओं के अधिकारों, जन्म नियंत्रण, बेहतर शिक्षा और विचार की स्वतंत्रता की वकालत की। वह पारंपरिक विवाह, रूढ़िवादी धर्म और समाज के अन्य क्षेत्रों में महिलाओं के साथ व्यवहार की लगातार आलोचक थीं।

एनी बेसेंट की कृतियां

प्रतिभा-सम्पन्न लेखिका और स्वतंत्र विचारक होने के नाते एनी बेसेंट ने थियोसॉफी (ब्रह्मविद्या) पर लगभग 220 पुस्तकें और लेख लिखे। ‘अजैक्स’ उपनाम से भी उनकी लेखनी काफी प्रसिद्ध थी। पूर्व-थियोसॉफिकल पुस्तकों और लेखों की संख्या लगभग 205 है। 1893 में उन्होंने अपनी आत्मकथा प्रकाशित की थी। उन्होंने 1895 में सोलह पुस्तकें और अनेक पैम्प्लेट प्रकाशित किए। एनी बेसेंट ने भगवद्गीता का अंग्रेजी-अनुवाद किया और अन्य कृतियों के लिए प्रस्तावनाएँ भी लिखीं। उन्होंने क्वीन्स हॉल में दिए गए अपने व्याख्यानों की एक श्रृंखला भी प्रस्तुत की, जिनकी संख्या लगभग 20 थी। भारतीय संस्कृति, शिक्षा और सामाजिक सुधारों पर संभवत: 48 ग्रंथों और पैम्प्लेटों की उन्होंने रचना की। भारतीय राजनीति पर करीबन 77 पुस्तकें लिखी गईं, और उनकी मौलिक कृतियों से चयनित लगभग 28 ग्रंथों का प्रकाशन हुआ। उनकी लिखी गई कुल 505 ग्रंथों और लेखों में ‘हाऊ इण्डिया रौट् फॉर फ्रीडम’ (1915) में उन्होंने भारत को अपनी मातृभूमि बताया है। उनकी पुस्तक ‘इण्डिया: ए नेशन’ को ब्रिटिश सरकार ने जब्त कर लिया था, क्योंकि उसमें उन्होंने स्वायत्त-शासन की विचारधारा का समर्थन किया था।

समय-समय पर उन्होंने ‘लूसिफेर’, ‘द कॉमन व्हील’ और ‘न्यू इंडिया’ जैसी पत्रिकाओं में भी संपादन कार्य किया।

एनी बेसेंट की उपाधियां और सम्मान

एनी बेसेंट को भारतीय जनता ‘अम्मा’ और ‘माँ बसंत’ के नाम से पुकारती थी। भारत की स्वतंत्रता में उनके महत्वपूर्ण योगदान के कारण गांधी जी ने उन्हें ‘वसंत देवी’ का सम्मान दिया। ब्रिटिश समाचार पत्रों ने उन्हें ‘पूरब का सितारा’ कहा। 1918 में एनी बेसेंट ने ‘इंडियन भारत स्काउट’ की नींव रखी। 14 दिसंबर 1921 को बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय ने उन्हें ‘डॉक्टर ऑफ़ लेटर्स’ की उपाधि से विभूषित किया।

एनी बेसेंट का निधन

भारतीय संस्कृति से एनी बेसेंट का गहरा लगाव था। वह कहा करती थीं कि “ईश्वर से मेरी प्रार्थना है कि मेरा अगला जन्म हिन्दू परिवार में हो।” अपने जीवन के अंतिम दिनों में वह काफी बीमार हो गई थीं और 20 सितंबर 1933 को मद्रास प्रेसीडेंसी के अडयार में उन्होंने अपनी आखिरी सांस ली। उनकी इच्छानुसार उनका अंतिम संस्कार वाराणसी की गंगा नदी में किया गया। इस प्रकार, एक महान समाज सुधारक के अवशेष भारत की धरती में समाहित हो गए, जो सदियों तक हमें प्रेरित करते रहेंगे।

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